काशी की गलियों में विकास के तार या खतरे की धार ?
- भूमिगत केबलिंग से बदली तस्वीर, पर क्या पूरी तरह सुरक्षित हुई काशी?
- जंक्शन बॉक्स बने नई चुनौती, जवाबदेही से कौन बच रहा है?
- आंकड़ों की चमक के पीछे जमीन पर उठते अनसुने सवाल
वाराणसी (रणभेरी): हजारों वर्षों से अपनी आध्यात्मिक पहचान के लिए विश्वविख्यात काशी आज आधुनिक शहरी बुनियादी ढांचे की दिशा में भी एक नई मिसाल बनने का दावा कर रही है। क्या यह दावा पूरी तरह सच है। क्या विकास की यह तस्वीर जमीन पर भी उतनी ही सुरक्षित और भरोसेमंद है। केंद्र सरकार की एकीकृत विद्युत विकास योजना (आईपीडीएस) के तहत बिजली लाइनों को भूमिगत करने का काम तकनीकी सुधार भर नहीं बताया गया। इसे शहर की सुरक्षा, सौंदर्य और पहचान से जुड़ा ऐतिहासिक परिवर्तन कहा गया। लेकिन क्या हर ऐतिहासिक परिवर्तन सवालों से परे होता है।
दशकों तक पुरानी काशी की संकरी गलियों, घाटों और बाजारों के ऊपर लटकता तारों का मकड़जाल बदसूरती ही नहीं हादसों की वजह भी बना रहा। इस बात में कोई संदेह नहीं कि केंद्र सरकार की एकीकृत विद्युत विकास योजना के बाद तस्वीर बदली। काशी को “वायरलेस शहर” की ओर बढ़ता बताया गया। पर क्या इस बदलाव के साथ नई चुनौतियां पैदा नहीं हुईं। क्या क्षतिग्रस्त और खुले पड़े जंक्शन बॉक्स उसी विकास की देन नहीं हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार की तमाम योजनाओं की भांति यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी ?
पाण्डे हवेली के पास, पेट्रोल पम्प भेलूपुर
इस महापरियोजना की नींव वर्ष 2014 में रखी गई। उद्देश्य था शहरी बिजली वितरण को मजबूत करना। वाराणसी को विशेष प्राथमिकता दी गई। जून 2015 में करीब 432 करोड़ रुपये की परियोजना घोषित हुई। अप्रैल 2016 में कबीर नगर और पुरानी काशी से काम शुरू हुआ। लक्ष्य स्पष्ट था। 16 वर्ग किलोमीटर के घनी आबादी वाले इलाके को 86 साल पुराने जर्जर ओवरहेड तारों से मुक्त करना। लेकिन क्या लक्ष्य तय करना ही पर्याप्त था। क्या जमीनी हकीकत का पूरा आकलन किया गया।
दो से तीन फीट चौड़ी गलियां सबसे बड़ी चुनौती बनीं। भारी मशीनें नहीं जा सकीं। खुदाई हाथों से करनी पड़ी। जमीन के नीचे सीवर, जलापूर्ति और बीएसएनएल लाइनों का सटीक नक्शा नहीं मिला। क्या यह लापरवाही नहीं थी। खुदाई में पाइपलाइन टूटी। पानी रुका। फोन और इंटरनेट ठप पड़े। महीनों तक धूल और मलबे से लोग जूझते रहे। दुकानदारों का कारोबार प्रभावित हुआ। क्या किसी ने उनसे पूछा कि वे यह कीमत क्यों चुकाएं।
दरअसल हकीकत यह है कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों की सह पर ठेकदारों की दबंगई के आगे जनता की एक न सूनी गयी। आईपीडीएस के तहत जिन भी क्षेत्रों में कार्य हुए वहां जमकर मनमानी हुई। ठेकेदारों ने अपनी मनमर्जी से भ्रष्टाचार की आगोश में गोते लगाकर इस काम को अंजाम दिया। एक बार कार्य पूर्ण करने के उपरांत कार्यदायी संस्था ने पलट कर पीछे देखना भी मुनासिब नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि गलियों में बिछाए गए विकास के तार आम जन मानस के साथ ही पशुओं के लिए भी खतरे की धार साबित हुए।
गोदौलिया चौराहा, अगस्तमुनि मंदिर के पास
केंद्र सरकार की एकीकृत विद्युत विकास योजना के तहत शहर भर के गली,मोहल्ले, चौराहे पर लगाए गए जंक्शन बॉक्स न केवल इस पूरी योजना में हुए भ्रष्टाचार की जिन्दा गवाही दे रहे हैं, बल्कि विद्युत विभाग के ज़िम्मेदारान अफसरों सहित शहर के जनप्रतिनिधियों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता का प्रमाण भी प्रस्तुत कर रहे हैं। जिनकी चुप्पी लोगों के जी का जंजाल बनी हुई है।
इन सबके बावजूद सितंबर 2018 में प्रधानमंत्री ने पहले चरण को राष्ट्र को समर्पित किया। कोतवाली,चौक, दशाश्वमेध, कज्जाकपुरा सहित कई इलाकों में हजारों किलोमीटर केबल बिछी। करीब 60 हजार उपभोक्ता जुड़े। बिजली व्यवस्था में बदलाव दिखा। यह बदलाव जरूरी था। इसमें दो राय नहीं।
आंकड़े बताते हैं कि लाइन लॉस 42 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत रह गया। शॉर्ट सर्किट और आग की घटनाएं 70 प्रतिशत तक घटीं। आंधी और बारिश में बिजली अधिक स्थिर हुई। घाटों और मंदिरों से तार हटे। सौंदर्य निखरा। पर्यटन को बल मिला। लेकिन क्या विकास की कहानी यहीं खत्म हो जाती है।
आज सवाल जंक्शन बॉक्स पर टिक गया है। संकरी गलियों में ई रिक्शा की टक्कर मात्र से ही बॉक्स टूट जा रहे हैं। सड़को पर भी हर तरफ जंक्शन बॉक्स भारी वाहनों के शिकार हो रहे है। बारिश में जलभराव से जंक्शन बॉक्स में जंग लग रही है। सैकड़ों जगह ढक्कन खुले हैं। क्या करंट का खतरा किसी बड़ी दुर्घटना का इंतजार कर रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि बीते दिनों में इंसान सहित जानवरों की भी कई मौते होने के बाद भी बच्चे, राहगीर और पशु असुरक्षित हैं । सुरक्षा मानकों का कोइ पालन नहीं हुआ। विभाग की और से समौय समय पर किसी तरह का रखरखाव नही दिखता । असामाजिक तत्वों द्वारा भी अपने लाभ के लिए विभाग के कर्मचारियों की मिली भगत से बॉक्स खोलने की शिकायतें हमेशा होती रहती हैं।
इस परियोजना में पावर ग्रिड मुख्य कार्यदायी संस्था रही। रखरखाव की जिम्मेदारी पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम के पास रही। ईपीसी ठेकेदारों ने क्षेत्रवार काम किया। अब आरडीएसएस के तहत 881 करोड़ रुपये का नया चरण प्रस्तावित है। नमो घाट, चौकाघाट और गंगा पार इलाके शामिल हैं। सर्वे और डिजाइन एलएंडटी को दिया गया है। लेकिन सवाल यही है कि क्या पिछली खामियों से सबक लिया गया। विभाग अब सुधार की बात कर रहा है। ऊंचे चबूतरे। सुरक्षा रेलिंग। फाइबर बॉक्स। फॉल्ट लोकेटर वैन। सवाल फिर वही है। क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था।
कुल मिलाकर भूमिगत केबलिंग काशी के लिए जरूरी कदम था। इससे इनकार नहीं। पर क्या विकास की राह में सुरक्षा से समझौता स्वीकार्य है। क्या नियमित निगरानी और जवाबदेही के बिना यह पहल आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह पाएगी। यही सवाल आज भी काशी की गलियों में गूंज रहा है।











