जिंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों !

जिंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों !

राहुल सावर्ण

नशा मुक्ति दिवस

वाराणसी (रणभेरी सं.)। आज का युवा देश का भविष्य कहलाता है। उसकी ऊर्जा, उसका जोश और उसकी सृजनशीलता ही किसी भी राष्ट्र को विकास की दिशा में आगे ले जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश, आज यही युवा पीढ़ी नशे की लत के मकड़जाल में बुरी तरह फंसती जा रही है। यह एक ऐसी त्रासदी है जो धीरे-धीरे हमारी सामाजिक, नैतिक और शारीरिक संरचना को खोखला कर रही है। आधुनिकता की आंधी में बहकर युवा न केवल अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि अपने जीवन, परिवार और समाज को भी रसातल की ओर ले जा रहे हैं।
नशीली दवाओं एवं मादक पदार्थों की उपलब्धता पहले महानगरों तक सीमित थी, लेकिन आज यह समस्या गांव-गांव तक पहुंच चुकी है। शराब, गुटखा, सिगरेट, चरस, गांजा, कोरेक्स, स्मैक, अफीम और तमाम तरह की टेबलेट्स अब आसानी से बच्चों, किशोरों और युवाओं के हाथों में पहुंच रही हैं। बालश्रम निषेध और किशोरों की सुरक्षा को लेकर भले ही कानून मौजूद हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इन कानूनों की धज्जियाँ उड़ाती है। गांवों और शहरों के बच्चे कबाड़ बीनने के दौरान या पंचर की दुकान पर काम करते हुए साल्यूशन जैसे घातक पदार्थ को नशे के तौर पर सूंघते हैं। यह दृश्य समाज की उस पीड़ा को दशार्ता है जो न केवल उपेक्षित है बल्कि सरकारी उपेक्षा की मूक गवाह भी है। नशे की शुरूआत अब उम्र के बेहद नाजुक दौर किशोरावस्था से होने लगी है। नौवीं-दसवीं कक्षा के बच्चे ट्यूशन या कोचिंग के नाम पर घर से निकलकर पान की गुमटियों से सिगरेट खरीदने लगे हैं। पहले दुकानदार बच्चों को डांटते थे, पर अब वही दुकानदार बच्चों को अपना ग्राहक मानकर उन्हें हर नशीली वस्तु तक सरल पहुंच दे देते हैं। यह गिरावट समाज की नैतिक संरचना के विघटन की ओर इशारा करती है।
समाज में संयुक्त परिवार की व्यवस्था टूटने और एकल परिवारों की अवधारणा ने भी युवाओं की परवरिश पर गहरा प्रभाव डाला है। दादा-दादी जैसे मार्गदर्शक रिश्तों की अनुपस्थिति, माता-पिता की व्यस्तता, और संवादहीनता ने बच्चों को स्वतंत्रता नहीं, बल्कि नियंत्रणहीनता दे दी है। जब कोई मार्गदर्शन नहीं होता, तो बच्चे अपनी संगत और वातावरण से ही सीखते हैं, और यही से नशे की शुरूआत होती है। कॉलेज के दिनों तक पहुंचते-पहुंचते सिगरेट और गुटखे की आदत शराब, गांजा और कोरेक्स में बदल जाती है। ये सब उनके स्वास्थ्य को अंदर से जर्जर कर देते हैं।

आश्चर्य की बात यह नहीं कि बच्चे नशे के संपर्क में आ रहे हैं, बल्कि यह है कि इन नशीले पदार्थों की आपूर्ति निर्बाध रूप से जारी है, जबकि ये सब प्रतिबंधित हैं। सवाल यह है कि जब सरकार द्वारा इन पर रोक है, तो यह सब उपलब्ध कैसे हो रहा है? क्या प्रशासनिक अमला पूरी तरह आंखें मूंदे बैठा है? यह सर्वविदित है कि नशे का कारोबार पुलिस, नेताओं और नशा माफियाओं की मिलीभगत से फल-फूल रहा है। जहां-जहां नशे के केंद्र हैं, वहां आम लोग जानते हैं कि कौन सप्लायर है, कौन बेचता है—तो क्या ये जानकारी प्रशासन को नहीं है?
हकीकत यह है कि नशे का धंधा राजनीतिक संरक्षण और पुलिस प्रशासन की मिलीभगत से ही चलता है। 

नशे के कारोबारी स्वयं भी राजनीतिक दलों से जुड़े हो सकते हैं, चुनावों में चंदा दे सकते हैं, और इसलिए उन पर हाथ डालना लगभग असंभव होता है। जब-जब जनता या मीडिया में दबाव बनता है, तब प्रशासन दिखावे के लिए कुछ छुटपुट कार्रवाई करता है—दो-चार लोगों को पकड़कर अखबारों में फोटो छपवाता है और खुद को कर्मठ साबित करने की कोशिश करता है।

सवाल यह है कि क्या यह वही युवा पीढ़ी है जिसके कंधों में देश की बागडोर सौंपी जानी है तथा भविष्य के भारत की बुनियाद भी इसी के जिम्मे है? हम अभी तक बात नशे के चक्र की कर रहे थे, लेकिन सबसे अहम् एवं जरूरी बात यह है कि शासन द्वारा जब इन नशीले पदार्थों पर प्रतिबंध है तो आखिर ! नशीले पदार्थ युवाओं तक पहुंच कैसे रहे हैं? क्या सरकार एवं प्रशासन तंत्र चिरनिद्रा में सोया हुआ है? प्राय: यह देखा जाता है कि नशे के कारोबारियों के साथ प्रशासन तंत्र की जुगलबंदी एवं राजनैतिक संरक्षण के चलते नशे का कारोबार धड़ल्ले के साथ चलता रहता है। पूरी युवा पीढ़ी एवं समाज को मौत के मुंह में झोंकने वाले नरपिशाचों पर कभी भी कोई कार्रवाई नहीं होती है, बल्कि नोटों के वजन के आगे आंख मूदकर सबकुछ सही बतला दिया जाता है।

आज जरूरत है ईमानदार राजनीतिक इच्छाशक्ति और सख्त प्रशासनिक कार्रवाई की। नशे के खिलाफ सिर्फ स्लोगन, पोस्टर और रैली काफी नहीं, बल्कि ठोस रणनीति की आवश्यकता है। पान की गुमटियों और मेडिकल दुकानों पर सख्त निगरानी, नाबालिगों को नशीले पदार्थ बेचने वालों पर कड़ी सजा, और स्कूली स्तर से ही नशा-प्रतिरोधी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। माता-पिता को भी बच्चों के साथ संवाद बढ़ाना होगा और उनकी दिनचर्या पर सतर्क निगरानी रखनी होगी। यह चिंतन का विषय है कि जिस युवा वर्ग के कंधों पर देश का भविष्य टिका है, वह वर्ग नशे में डूबा हुआ है। 

इसलिए अब समय आ गया है कि समाज, सरकार, शिक्षा तंत्र और परिवार मिलकर इस भयावह संकट से निपटने के लिए निर्णायक कदम उठाएं। वरना यह नशा केवल युवाओं को ही नहीं, बल्कि भारत के भविष्य को लील जाएगा।